Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २४०

२८. ।भाई गुरदास जी दी संगत ळ प्रेरना॥
२७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> २९
दोहरा: भानी भगनी तेसुनी,
सरब बारता जोइ।
चित महिण तरकति१ बहुत ही,
-अति अजोग इहु होइ ॥१॥
चौपई: शांति रूप श्री अरजन अहैण।
काहू संग न कैसे कहैण।
सो बल छल ते दरब हिरति हैण।
गुर बन, संगति अपनि करति हैण ॥२॥
जबि गुरता को कारज होइ।
सिज़खन की सहाइता जोइ।
पूरब तौ इस लोक मझारी।
संकट परहिण आन कित भारी ॥३॥
सुत बित को बाणछति है कोई।
तबि इन ते बन सकहि न सोई।
सिज़खन बिखै अशरधा होइ।
पूजनि ते हटि है सभि कोइ ॥४॥
इम गुरता सिज़खी महिण घाटा।
निबहि न इहु प्रपंच जो ठाटा।
गुरू गुपत रहिण, लखहि न कोई।
बिना मिले ते कोण सुधि होई- ॥५॥
एव बिचारति चित गुरदास।
गुर के चज़क रहो गुर पास।
दोनहुण भ्रातन की खुटिआई।
देखति भयो -करति अधिकाई२ ॥६॥
जरी न जाइ रिदै महिण सोई।
दरब हिरहिण संगति ते दोई-।
श्री अरजन सोण इक दिन कहो।
गुरिआई पद तुम नै लहो ॥७॥


१विचारदा है।।संस:॥ तरक = दलील।
२वधीकी।

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