Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) २४२

२९. ।घेरड़ म्रितू॥
२८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>३०
दोहरा: सुनि गुर के बच रिस भरे, ओज प्रताप समेत।
नहि समुझो निदक महां, प्रभु को लखो न भेति ॥१॥
चौपई: बोलो बहु कठोर अभिमानी।
मैण न डरोण सुनि कै तुव बानी।
करौण तिदारक१ तो संग ऐसे।
सिमरहि२ सकल आरबल जैसे ॥२॥
पित अरजन को जस भा हाल।
कोण नहि सिमरति महां कराल।
मरो कैद महि हठि नहि हारो।
तिसी रीति अबि पुज़त्र बिचारो ॥३॥
-गुरू गुरू- जग करते फिरैण।
नर ब्रिंदनि को बंचन करैण।
धन बहु आइ जरो नहि जाई।
जहि कहि चलि अुतपात अुठाई ॥४॥
दियो देश ते वहिर निकारे।अजहु न समुझि त्रास नहि धारे।
कहां भयो श्री नानक जोई।
श्री अंगद श्री अमर जि होई ॥५॥
रामदास अरजन का भयो।
जग ते बंचन करि धन लयो।
अग़मतिवंति कहावति कूरे।
कहि कहि बनि बैठे गुर पूरे ॥६॥
चलो जाहु जे भलो चहंता।
कोण हुइ हौरो बनो महंता३।
इम कहि गारि निकारनि लागा।
सुनति कोप गुर को अुर जागा ॥७॥
इक तौ श्री नानक ते आदि।


१भाव मज़क बंन्हांगा।
२याद रखेणगा।
३पूज बणिआण होया हैण किअुण हौला होया (चाहुंदा) हैण।

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