Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २४८

२४. ।भैरो पुर खीओ भज़ले ळ मिलके गुरू जी ने वापस खडूर आअुणा॥
२३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२५
दोहरा: राहक१ मिले खडूर के,
अुर प्रसंनता पाइ।
मन भावति बरखो जलद२,
हरित खेत३ समुदाइ ॥१॥
चौपई: सकल मिले सभि बात बिचारी।
गुर की भई अवज़गा भारी।
जिन महिण अग़मत एतिक अहै।
बरखो जल जिन सेवक कहै ॥२॥
रहति हमेश नहीण मितिजानी।
जा बैठे हैण+ अपर सथानी।
अबि मिलि चलहु न बिलम लगावहु।
भई भूल तूरन बखशावहु ॥३॥
नांहि त श्राप देहिण भै दायक।
अपदा परहि प्रमोद नसाइक४।
इमि कहि मिलि करि ले पकवान।
बखशावन गमने तिस थान ॥४॥
-जिस प्रकार इस थल चलि आवहिण।
तिमि सभि करिहु क्रिपाल रिझावहिण-।
खान रजादे के थल गए।
श्री गुर बैठे देखति भए ॥५॥
सभिनि जाइ पद बंदन ठानी।
बिनती जुकति बखानी बानी।
श्री गुर हम ने भेद न पाइव।
सभि को जोगी तपे भुलाइव ॥६॥
रावरि को निदक बड पापी।
धन लोभी मन कूर संतापी।


१ग़िमीदार।
२बज़दल।
३खेत हरे होए।
+पा:-जा बैठारे। काढे हम गए। करि बैठे हैण।
४खुशी दूर करन वाली विपदा।

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