Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २४६
३५. ।परधान गुरू जी पास॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>३६
दोहरा: सुनो मसंदनि मेवरनि, प्रचुर भयो१ बिरतांत।
श्री जननी ते आदि सभि, करति चिंत बहु भांति ॥१॥
चौपई: जेतिक मुज़ख हुते गुर घर के।
सभि इकज़त्र होए ध्रित धरि के।
केतिक करे हकारनि आए।
कितिक आप ही गे तिस थांए ॥२॥
पहुचे श्री माता के पास।
नमोण करहि बहु बिनै प्रकाश।
बैठे ब्रिंद ब्रितांत बखाने।
श्री हरिक्रिशन हकारनि ठाने ॥३॥
दुशट बडो बादी हठ कूरो।
नौरंग शाहु शर्हा को पूरो।
रोकि सभिनि को अग़मत चाहे।
नतु निज मत मैण लाइ अुमाहे२ ॥४॥
पुन भ्राता तहि, मतसर भरो।
जिनै बुलावनि को मत करो।
मिलि तिन३, घात अनेक रचति है।
अनज बडाई देखि तचति है४ ॥५॥
श्री हरिक्रिशन बैस लघु तिन की।
तहिसहाइता नांहिन जिन की।
पिता धीर बैकुंठ सिधाए।
सकल कला समरथ सुखदाए ॥६॥
इह असमंजस५ है सभि बात।
हुइ तहि कहां, न जानी जाति६।
इतने महि चलि सतिगुर आए।
१फैलिआ।
२आपणे मत विच लिआ के खुश हुंदा है।
३तिंन्हां (भाव बादशाह आदिक नाल) मिलके।
४सड़दा है।
५कठन।
६नहीण जाणिआण जाणदा।