Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २४६
३५. ।हडिआए नगर ताप दे रोगी अरोग कीते॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३६
दोहरा: वहिर हडाए नगर ते, अुतरि रहे शुभ थाइ।
बैठे गुरू बिराज ही, नियोग्रोध की छाइ१* ॥१॥
चौपई: तहि इक पुरि को नर परि रहो।
जर तन चढो अगनि जनु दहो।
मुख सूखति ले सास सजोर।
कंपति काइआण संकट घोर ॥२॥
सिर अरु हाड फोरनी घनी।
पीड़ति जर ते जाइ न भनी।कबि बैठहि कबि भू महि परिही।
कबि अंगराइ जंभावन करि ही२ ॥३॥
बाकुल देखि गुरू बच कहो।
इह को अहै पाइ दुख रहो?
अपने घर कोण जाइ न परो?
वहिर प्रिथी पर रज सोण भरो ॥४॥
तिह पुरि के मानव इक दोइ।
दीन मने सुनि बोले सोइ।
इसि को चढो बडो जर ग़ोर।
पाइ रहो संकट अुर घोर ॥५॥
गात दूबरो पीरो रंग।
भए निबल जिह सगरे अंग।
नहि भोजन की रुचि अुर जागे।
परो रहै निस निद दुख पागे ॥६॥
इस नगरी महि जर के ग़ोर।
गन मानव प्रापति दुख घोर।
दीखति है जस इस को हाल।
तस बहु नर को कशट बिसाल ॥७॥
म्रितु के बसी सैणकरे होए।
१बोहड़ दे ब्रिज़छ हेठ ।संस: नग्रोध॥
*साखी: पो: विच टाहलीआण दी झंगी हेठ लिखिआ है।
२अुबासीआण लैणदा सी।