Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 235 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २५०

बिरद सणभारहु शील क्रिपाल१।
बखश देहु अपराध बिसाल।
बिहस कहो पुन सहिज सुभाइ।
हमरे हठ होहि न किस भाइ ॥१४॥
ऐबो इहां कि जैबो ग्राम।
इक सम वहिर कि बैठनि धाम।
जेकरि तुम प्रसंन समुदाइ।
ले संग चलहु बसहिण तिस थाइण ॥१५॥
बिधि निखेध२ हमरै कुछ* नांही।
समो बितावहिण बैठहिण जाणही।
सुनि हरखे नर अुर समुदाई।
कहि करि सतिगुर लिए अुठाई ॥१६॥
सिज़खन सिर प्रयंक अुचवाए+।
अपर वसतु कछु लै गमनाए।
श्री अंगद के संग सिधारे।
सिज़ख जाट सगले परवारे ॥१७॥
मारग चले आइ गुरु सामी।
सम चित आनद अंतरजामी।
पंथ बिखै भैरो पुर ग्रामू।
खीओ भज़ले को तहिण धामू ॥१८॥
सुनि आगवनि सतिगुरू केरा।
मिलो आन,करि भाअु घनेरा।
बहु बिनती जुति बंदन करी।
कहिति भयो सफली इह घरी ॥१९॥
टिकहु आप मैण लाअुण अहारा।
अचवहु, करुना करिहु अुदारा।
राअु रंक को परखति++ कोइ न३।


१क्रिपालू सुभाव वाला बिरद संम्हालो।
२किसे कंम करन दी आगा विधि है, ना करने दी आगा निखेधि, भाव हां, नां।
*पा:-किम।
+पा:-अुठाए
++पा:-परखनि, परतज़ख।
३भाव फरक नहीण करदे हो।

Displaying Page 235 of 626 from Volume 1