Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३६

४. ।बलीआ चंद ते आलम चंद नाल जुज़ध॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>५
दोहरा: परचति करति शिकार को, दूर गए जगनाथ।
नाद कुलाहल गैल महि, दुंदभि तुपकन साथ१ ॥१॥
चौपई: निकट रहो राजनि को डेरा।
जिन के मन हंकार बडेरा।
बलीआचंद सु आलमचंद।
सुनि धुन को अुतसाह बिलद ॥२॥
तूरन तार होइ असवारा।
जिन के संग सिपाहि हग़ारा।
चहि बहादरी करनि दिखावनि२।
कहैण परसपर भा मन भावन ॥३॥
जंग करन को अुर हंकारी।
आए समुख चमूं ले सारी।
मिले आनि करि अनिक पहारी।
तुपक चलनि लागी तिस बारी ॥४॥
सिंघ शसत्रधारी इत थोरे।
जोधा घने आइ अुत ओरे।
तबि कलीधर पूरबदिशि को।
गए भजाइ कुदाइत असु को ॥५॥
केतिक काल खालसा लरो।
अपने महि गुर नहीण निहरो।
हम को छोरि गए करि भांा।
को जाणहि मन महि का जाणा ॥६॥
धीरज रहो न सिंघनि केरा।
रण ते भाजि चले तिस बेरा।
बिचलो पिखो खालसा जबै।
मिलि पहारीयनि मारे तबै ॥७॥
निकसे खड़ग कटे बहु अंग।
भई लाल छित श्रोंत संग।


१नगारे ते बंदूकाण दी अवाग़ दा शोर रसते विच हुंदा सी।
२बहादरी करके दिखाइआ चाहुंदे हन।

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