Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६६

नहिण अति सीत न अुशन तपेति।
बिकसे कुसम१ अनेकनि रंग।
अति शोभासुंदर सरबंग२ ॥२६॥
पात निपात पलास प्रकाशे३।
जित कित अरुं बरण ही भासे।
चहुण दिश बन की दिखीअति भूमि।
जनु गन अगनी लाट अधूम४ ॥२७॥
अुपबन महिण गुलाब चटकीले५।
बिकसति बूटन साथ छबीले।
कौन कौन तरु फूलन केरी।
कहीअहि जात रुचिरता हेरी ॥२८॥
शोभा बन अुपबन की बाढी६।
मनहु दिखावनि निज ते काढी७।
ब्रिंद बिहंगन बोलबि जनीयति।
कानन रहि कानन महिण सुनीयति८ ॥२९॥
रुति बसंत जग बिदत छबीला।
शांति ब्रिज़ति सतिगुर की लीला।
आवति गोइंदवाल जदाई।
बिपन बिलोकति सुंदरताई ॥३०॥
तन को तागन चितवति९ चाहति।
-गमनैण अबि बैकुंठ- अुमाहति।
सभि संगति महिण कहि बिदताई।
तजहिण सरीर अबहि चित आई ॥३१॥


१खिड़े फुज़ल।
२सरब अंगां करके।
३पलास = छिज़छरा। छिज़छरे दे पज़ते (तां) झड़े होए हन (पर फुज़लां नाल लदिआण लाली भा नाल
मानोण) प्रकाश रिहा है। छिज़छरे ळ फुज़ल पहिलां निकलदे हन तेपज़ते पिज़छोण।
४धूंएण तोण रहित।
५खिड़े होए, सुंदर।
६बगीचिआण दी वधी।
७बन ने मानोण आपणे विचोण दिखाअुण लई कज़ढी है।
८बनां विच रहिणदे (पंछी बोलदे) कंनां विच सुणीणदे हन। (अ) बनां विच चज़ल रहो तां कंन नाल
सुणो (पंछी बोलदे)।
९चितवनी, विचार।

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