Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २६४

३८. ।झीवर तोण गीता दे अरथ॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>३९
दोहरा: सकल बिताई जामनी, भई पुनहि परभात।
करि शनान श्री सतिगुरू, चाहति पंथ प्रयात१ ॥१॥
चौपई: तजि पंजोखरे ग्राम मसंद।
अटकहि संगति इहां बिलद।
गुर को बाक सुनावहि श्रौन।
आगै गमन करहि नहि कौन ॥२॥
इस थल दरशन करि हटि जाइ।
इम सतिगुर की अहै रजाइ।
इम सिज़खनि सोण कहि गुर चाले।
संदन पर आरूढि सुखाले ॥३॥
बली तुरंग संग जिसलागे।
गति चंचल जनु चलि हैण भागे।
अपर सुभट अरु महां मसंद।
शशत्र बसत्र ते शुभति अुतंग ॥४॥
सतिगुर के पाछे लगि चाले।
दिन महि गमनहि पंथ बिसाले।
सिवर करहि जामनि को पाइ।
खान पान करि कै समुदाइ ॥५॥
सुख सोण सुपतहि निसा गुग़ारहि।
भई प्राति पुन पंथ सम्हारहि२।
गमनहि मारग इसी प्रकारे।
एक नगर तबि आइ अगारे ॥६॥
करो सिवर तहि अुतरि परे हैण।
वाहन पाए ग़ीन खरे हैण।
तहि इक पंडित बिदा घनी।
बुज़धी बड हंकार सोण सनी३ ॥७॥
इक तो बिज़दा कहु मद भारी।


१राहे चज़लंा।
२संभालदे हन।
३दे समेत।

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