Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) २६३
३५. ।कीरति पुरि। आनद पुरि आअुणा॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>३६
दोहरा: बजो नगारा कूच को,कंपति न्रिप सुनि तीर१।
मुदत होति सेवक सकल,
चढो गुबिंद सिंघ बीर ॥१॥
निशानी छंद: सैन संग ओरड़ चली, नभ महि रज छाई।
मिलहि ग्राम दे भेट कौ, ले दरशन पाई।
देति रजतपन, को दधी, को घट भर पै को२।
को आनति मिशटान को, पग सीस लगै को ॥२॥
भाखहि सुजसु प्रतापु को, प्रभु केर बिसाला।
करहि हग़ारहु बंदना, जित द्रिशटि क्रिपाला।
दिन महि गमनति पंथ को, बड घाम थिरंते३।
बसहि तहां पुन जामनी, बिसराम करंते ॥३॥
दिनप्रति इम करि कूच कौ, मग अुलघो सारा।
श्री कीरतपुरि तीर महि, डेरा निज डारा।
श्री मुख ते फुरमाइओ+, बहु करहु कराहू।
अुतरि करो इशनान को, निरमल जलमांहू ॥४॥
बंधि सीस अुशनीक४ को, पुन जिगा सजाई।
कली धरी अुतंग बर, झूलति छबि पाई।
अभिरामा जामा पहिर, कसि कट शमशेरं।
भाथा गर५, धनु कर गहे, बन करि सम शेरं ॥५॥
गए पितामा थान को, भट संग महाने।कर जोरी करि बंदना, अरदास बखाने।
बैठि लगाइ दिवान कौ, दरसति बर बीरं।
आइ रबाबी गान करि, धुनि राग गहीरं ॥६॥
तबि पंचांम्रित ब्रिंद को, बरतावन कीना।
१पास दे राजे।
२घड़ा भरके दुज़ध दा।
३बड़ी धुज़प वेले टिकाअु करदे हन।
+पा:-फुरमायो।
४दसतार।
५गले विच।