Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २६४
३५. ।चंदू दी ळह। बारू तपत॥
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दोहरा: ग्रिह चंदू के सुधि भई, सतिगुरु को दुख देति।
किसे सिज़ख की सुता थी, पापी नुखा निकेति१ ॥१॥
चौपई: सुनि प्रसंग दलको२ तिस रिदा।
-मम नैहरि३ मानहि जिह सदा।
अनिक कामनाजाचति पाई।
गुरु गुरु सिमरति नित सुखदाई ॥२॥
ससुर पातकी तिह दुख देति।
को अघ ते मैण इनहु निकेत।
कितिक दिवस ते पियो न पानी।
खाइ न भोजन निद्रा हानी ॥३॥
धिक जीवन इस घर महि मेरो।
गुरु को दुख सुनि थिर है हेरोण४-।
रहो न गयो मिठाई घोरी५।
कुछ भोजन लै गमनी चोरी ॥४॥
पहुची जिह ठां खरे सिपाही।
सुकचति डरति जाति नहि पाही।
इक हकार करि अपने पास।
दीनसि ग़ेवर तिनहि निकासि ॥५॥
राखो गुपत सुनावहु नांही।
मैण इक बेरि जाअुण गुर पाही।
धरे लोभि तूशनि हुइ रहैण।
जाइ तुरत आवहु बच कहे ॥६॥
चंदु पातकी लखहि न जिस ते।
हमहु निकासहि नहि मन रिस ते।
गई गुरू ढिग देखति रोई।
नमो ठानि कहि बिनै भिगोई१* ॥७॥
१पापी दी ळह, घर (विच)।
२कंबिआ।
३मेरे पेके, मापे।
४बैठके वेखदी हां।
५मिज़ठा घोलिआ।