Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २६९
२७. ।श्री अमर जी ळ गुरिआई देणी, ते समावं दीआण तिआरीआण॥
२६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>२८
दोहरा: श्री गुर अंगद की सुनी, आइसु सिज़ख समसत१।
बिसमति हुइ लागे करन, पूजहिण करहिण* नमसत२ ॥१॥
चौपई: तबि श्री अमर ठानि इशनाना।
नम्रि होइ करि निकट महाना।
बैठे बंदन करि पद कंज।
आनिमिली संगति सभि पुंज ॥२॥
बीच बिराजहिण सतिगुर बैसे।
सभि ग्रह मैण सूरज हुइ जैसे।
निसा अविज़दा निकट न आवै।
निदक तसकर देखि पलावैण ॥३॥
पेचक३ बेमुख अंधे रहे।
नहीण प्रकाश महातम४ लहे।
संत कमल बिकसे हरखाए।
अलि जगासी जहिण मंडराए५ ॥४॥
मति बहु रीति अुडग६ जग मांही।
परम प्रकाश सु पावति नांही७।
कैरव कानन गन दुरचारी८।
सभि मुरझाइ रहे तिस बारी ॥५॥
सदगुन जुति नर जागति भए।
बिखई जीव तमचर९ सुपतए।
जाग्रत करहिण सु आदि शनान१०।
१सारिआण ने।
*पा:-कहहिण।
२नमसकार।
३अुज़लू।
४प्रकाश दी महिमा।
५जज़गासूआण रूपी भौरे मंडलौणदे हन।
६तारे।
७परम प्रकाश ळ प्रापत नहीण हुंदे, भाव हुंदे सार गुंम हो जाणदे हन। (अ) आपणा चानंा जगत
अुज़ते बहुत नहीण पा सकदे।
८समूह मंद करमी कवीआण दे बन वाणगू हन।
९राखश, चमगिज़दड़, अुज़लू आदि जो हनेरे विच विचरदे हन।
१०(सूरज अुदे होए ते भले पुरश) जाग के जीकुं इशनान आदि करदे हन।