Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) २६७

३५. ।कुटवाल ने आ के गुरू जी दा जस कीता॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>३६
दोहरा: निपट१ कपट के कूड़ बच, सुनि कलीधर धीर।
बोले बचन अदीन२ प्रभु, जबि तूं गिरपति तीर३ ॥१॥
चौपई: किम न्रिप भनो सुनोण तैण कहां।
गरबति बचन कहे तिन जहां।
तिन सोण किम हुइ मेल हमारा।
करहि कपट कपटीकुड़िआरा ॥२॥
कहो कि -मो सोण बिगरै जबै।
किस थल बसै जाइ गुर तबै।
दिज़लीपति के संग बिगारे।
जहि गुर बडे बिकुंठ सिधारे- ॥३॥
सो आशै का समुझै मानी।
-राखहि४ हिंदुनि लाज महानी।
सीस दिलीशुर के हुइ आपे५।
तन तजि गए-, सुमति से जापे६ ॥४॥
जग महि इसथिरि रहो न कोई।
जो अुपजहि सभि बिनसति सोई।
तअू सुनहु जे परअुपकारी।
तजहि सरीर महां मति धारी ॥५॥
से जग महि जीवत ही जानहु।
सुजसु जहां कहि भले प्रमानहु।
कोण न बिचार रिदे महि देखा।
अपनि बडे पर करहु परेखा ॥६॥
को जीवति है जगत मझारी?
बाबर आदिक दल बल भारी।
सकल काल को अहै चबीना।


१अतियंत।
२ निरभय।
३जद तूं राजे पास सैण (तद राजे ने).....।
४रज़खी है।
५औरंग दे सिर होके आप ही.......।
६बुज़धीमान इह जाणदे हन।

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