Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २६७३५. ।वापस पंजाब ळ। थनेसर, डरोली॥
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दोहरा: भाजि गए तजि लाज को, सिज़ध समाज मझार।
जानी गोरख बारता, बोलो कुछ रिस धारि ॥१॥
चौपई: सुनि भंगर! तैण लाज बिसारी।
बनि बनि बैठति बड हंकारी।
श्री नानक की प्रथम खरावाण।
तिस की मार खाइ पछुतावा ॥२॥
अपने साथि अनुचित कराई।
तौ गुर आगे ग्रीव निवाई।
जग महि प्रगटन, देनि दिखाई१।
जहि कहि नर गन ते पुजवाई२ ॥३॥
तबि की हम ने दीनिसि छोर।
जानो पसरो कलिजुग घोर।
सो प्रण तजि अबि गमने दौरि।
का करतूत करी तिस ठौरि ॥४॥
सभि सिज़धनि को कीनस हौरा।
मद हंकार पान ते बौरा।
जो सिध हुइ मम बच अनुसारी।
रहै दुरो अबि गिरन मझारी ॥५॥
नहि देशनि तिन देहि दिखाई३।
चहहि न बिदति होनि पुजवाई।
बे मिरजाद करहि अबि कोई।
सिध मंडल ते निकसहि४ सोई ॥६॥
सभि सिध भंगरकी दिशि देख।
हसहि, लखहि -मतिमंद बिशे-।
बैठि रहो करि कै मुख नीचा।
मनहु सैणकरे घट जल सीणचा५ ॥७॥
१प्रगट होणा ते दिखाई देणा।
२पुजवावंा।
३तिन्हां देशां विच दिखाई ना देण।
४कज़ढिआ जाएगा।
५मानो जल दे घड़िआण नाल (सिंजिआ) भिज़जिआ भाव शरमिंदा होइआ है।