Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २७२
झोली महिण नलेर धरि खरे* ॥२०॥
करि बंदन सिंघासन दीना।
सभि सोण बाक अुचारन कीना।
मेरो सिज़ख पुज़त्र कै दास!
अंत समैण जो चहि मम पास१ ॥२१॥
सो सभि अुठहु बंदना ठानहु।
नहीण अपर बिधि मन महिण आनहु।
सुनि करि बुज़ढा सभिनि अगारी।
खरो होइ पगबंदन धारी ॥२२॥
तिस पीछै सिज़ख संगति सारे।
करी नमहिण श्री अमर अगारे।
श्री अंगद निज सुत दिशि देखा।
अुठो न, मन महिण गरब२ बिशेखा ॥२३॥
दासू साथ भनोगुर नाथ।
अुठि तुम भी टेको निज माथ।
सुनह पिता! इहु दास हमारा।
इक तौ लीनसि मम अधिकारा ॥२४॥
दुतीए अुठ करि सीस निवावैण।
इह तौ हम ते नहिण बनि आवै।
निज सथान पर इही टिकाए।
हम को छूछे राखि सिधाए ॥२५॥
तुम सोण का बस चलहि हमारो।
कियो पंथ सभि जग ते नारो।
जिम तुम दास होइ करि पाई।
तिम अबि दई दास बडिआई* ॥२६॥
*पंज पैसे नालीएर सेली तलवार आदि गुरू साहिब आप अगे रखके नमसकार करदे से ते तिलक
बुज़ढा दिआ करदा सी। ।देखो जीवन बाबा बुज़ढा जी॥।
१जो चाहुंदा है कि अंत समेण मेरे पास (पहुंचे)।
२हंकार।
*केवल सेवा करके गदी मिलंी समझंा भुज़ल है। पहिला कारन है धुरोण दात लै के आअुणा जिस
दा सबूत चरनां विच पदम है। देखो पिछे अंसू २४ अंक ३९। फिर घाल, देखो अंसू २४ अंक
४०। फिर प्रेम जो अंतर आतमे सतिगुर नाल सी। फिर नाम सिमरन, फिर सतिगुर दी अगंमी
मेहर। ऐसे ऐसे सारे कारन गज़दी मिलन दे हुंदे रहे हन। सेवा ते परख कई वेरसिज़खां ळ
निसचे कराण लई हुंदे सन।