Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २७६प्रतीत धारि ना लहे१ ॥४६॥
गुरू महान चीनियो।
निहाल दास कीनियो।
निवारि मोह ताप को।
जपाइ नाम जाप को ॥४७॥
सदा अधीन प्रेम के।
न्रिबाहि कीनि२ नेम के।
सु ताइ जेमु हेम के३। सु दान देति छेम के ॥४८॥
सुछंद* सिंधु नदना४। अमंद हो, मनिद ना५।
गोबिंद, शज़त्र कंदना६। सु बंदना, तु बंदना७ ॥४९॥
दोहरा: श्री सतिगुर! किम आप अबि, हुइ गे अंतर धान।
लोकनि की शंका कहां, तुमहि न अुचित महांन ॥५०॥
दिहु दरशन करुना करहु, प्रथम जगत की रीति।
करते रहे सु अबि करहु, कोण ठानहु बिज़प्रीत ॥५१॥
परम धाम अभिराम को, गमनहु इह तन तागि।
इम बिनती सुनि दास की, जानि महां अनुराग ॥५२॥
सिंघासन पर विदत भे, देखि सकल हरिखाइ।
जै! जै! शबद अुचारि करि, परे दौर सभि पाइ ॥५३॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे श्री अंगद परम धाम
गमन प्रसंग बरनन नाम सपतबिंसती अंसू ॥२७॥
१नहीण दरशन करदे।
२निबाहुण वाले।
३ताके सोनाजैसे (सुज़ध करीदा है)।
*पा:-जु छंद।
४आप (जिंने) सुतंत्र हो समुंदर दा पुज़त्र (चंदरमां बी अुतना नहीण) (अ) (वधेरे) सज़छ हो चंद्रमां
नालोण (ॲ) सुतंत्र हो ते आनद दे समुंद्र हो।
५(तुसीण चंद वाणगू) मंद नहीण हुंदे (वधदे घटदे नहीण) तांते अुह तुज़ल नहीण।
६वैरी दे नाश करता।
७तुहाळ नमसकार है।