Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 262 of 492 from Volume 12

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) २७५

३५. ।खटकड़ ग्राम चोर अंने होए। जीणद। आगरे॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>३६
दोहरा: खटकड़ ग्राम समीप ही, अुतरे श्री गुरदेव।
तहि के राहक आन करि, नहीण करी कुछ सेव ॥१॥
चौपई: धन को दे करि मोल मंगायो।
खान पान सभि बिधि करिवायो।
सेव तुरंगनि की सभि कीनि।
त्रिं अनवाइ मोल को दीनि ॥२॥
ग़िमीदार तहि के तबि आए।
पुशट तुरंगम देखि लुभाए।
मिलि आपस महि मसलत ठाने।
अधिक मोल के तुरंग महाने ॥३॥
लेहु निसा महि इनहु चुराइ।
इह परदेसी लखहि न काइ।
चले जाहिगे बस न बसावै।
इन पीछे हम सदन बधावैण ॥४॥
बेचहिगे धन पाइ बिसाला।
औचक भयो लाभ इस काला।
इम आपस महि गिन१ मति मूड़े।
चहैण तुरंगन होइ अरूड़े ॥५॥
भयो निसा महि तिमर घनेरा।
सतिगुर सुपति भए तिस बेरा।तसकर बनि राहक सो आए।
हेरि तुरंगनि के नियराए ॥६॥
खशट चोर खट घोरनि हेतु।
हुइ डेरे के नेर सुचेत।
जावत पहिरू जागति रहो।
ताकति रहे न हय को गहो ॥७॥
ढरी जामनी ते अलसायो।
निकटि बिलोकहि तिन लखि पायो।
खशटहु खट घोरन की ओर।


१सोच के।

Displaying Page 262 of 492 from Volume 12