Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २७५

३३. ।सुपने विच प्रतज़ख, सतिगुर जी पर राजे दी शरधा॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ३४
दोहरा: कितिक काल महिपाल कौ, बैठो बितो सु थान।
तिस चडाल१ कौ पुत्र इक, न्रिप को देखो आनि ॥१॥
चौपई: दूर खरो हेरति ललचावै।
करति त्रास, पर निकट न आवै।
-इह तो पिता हमारो अहै।
जो मरि गयो सु छल ही लहै- ॥२॥
दौरो सदन बतायो जाइ।
कोण रोवहु? पित बैठो आइ।
करो सु छल पित मरो न जानो।
चलि देखहु, जे कहो न मानो ॥३॥
सुनति भारजा चलि करि आई।
अपर कुटंब संग ही लाई।
हड़बड़ाइ२ पहुची दुखिआरी।
देखति अूची कूक पुकारी ॥४॥
इहा का कीन कुटब को छोरा।हम सभि को दीनसि दुख घोरा।
रुदिति भई बाकुल निस मांही।
आइ समीप लीनि सुधि नांही ॥५॥
इम भाखति सगरे चलि आए।
देखि न्रिपत ने सकल हटाए।
सुपने बिखै पिखे थे जैसे।
देखति भयो कुटंबी तैसे** ॥६॥
सो इसत्री, सुत तनीया सोई।
सुपने जनम बने थे जोई।
सनै सनै जबि देखो थान।
निस महि बसो सु परति पछान३ ॥७॥
सुपना अरु तिन पिखति बिचारति।

१भाव सुफने विच जो राजा ने चंडाल दा जनम डिज़ठा सी।
२छेती नाल।
**पा:-कुटंब सभि तैसे।
३पछां पैणदा है।

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