Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) २७४

बहुर करी नगी शमशेर।
मारि मलेछन को सम शेर*।
राति अंधेरी सूझ न आई।
आपस महि तरवार चलाई ॥३४॥
हुतीचमूं दस दोइ हग़ार।
आपस महि कटिगे तिस बार।
सिंघ जंग महि सुरग सिधारे।
दुशट हग़ारहु तहां प्रहारे ॥३५॥
हठी सिंघ तहि ते निकसो।
पुन बुरहान पुर चलि गयो।
बसो तहां बड सदन चिनाए।
सिख संगति करि कै समुदाए ॥३६॥
सुत अुतपंन भयो नहि कोई।
बैस बिताई तहि बसि सोइ।
एक सुता अुपजी तिस केरे।
पुन प्रलोक भा तहां भलेरे ॥३७॥
अबि लौ चिंन्हत पुरि बुरहाने।
हठी सिंघ को थल नर जाने।
अहिमदशाह मुरो पुन पाछे।
लरहि सिंघ जित कत ते आछे ॥३८॥
आगा पाछा लूटि पलावै१।
रिपु को कशट महां दिखरावैण।
इम ही मारति अटक अुतारा२।
श्री अंम्रितसर बहुर अुसारा ॥३९॥
म्रतका कार दुसालनि डाले३।
गुरू नीव ते चनो अुताले४।
महां प्रेम ते ताल बनायो।


*पा:-दे गेर।
१(अहिमद शाह दी) फौज ळ अज़गोण पिज़छोण लुटके भज़ज जाणदे हन।
२(अहिमद शाह ळ) मारदिआणअटकोण पार अुतारा दिज़ता।
३भाव कार सेवा ऐडे प्रेम नाल कीती कि कईआण ने दुशालिआण विच पा पा के कार कज़ढी।
४गुरू जी वाली नीणह तोण चज़क के छेती अुसार लिआ
(भाव नीहां अुही गुरू जी वालिआण ही रहीआण।)

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