Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) २७५
२८. ।भाई दया सिंघ जी दा जूं॥
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दोहरा: अचरज बिदतो पंथ जग,
किसहु न मानहि कान।
दे ते के बली बड,
बाणके बीर सुजान ॥१॥
चौपई: कहो किसू को कोणहूं न मानहि।
गोर मड़ीन१ अनादर ठानहि।
गुर की आइसु को दिढ राखहि।
सदा जंग को अुर अभिलाखहि ॥२॥
अूचो मति सभि ते सुचि रहैण।
तरक तुरक हिंदुनि पर कहैण।
देखि जगत के लोक खिसानहि२।
अपने ते अचार शुभ जानहि ॥३॥
निस दिन भजन प्रताप बधंता।सज़तिनाम सिमरहि सुखवंता।
हिंदू तुरक हेरि दुख पावहि।
शुभ सरूप चित जरो न जावहि ॥४॥
जथा आणख महि त्रिं पर जाइ।
चुभति अधिक नहि निकसन पाइ।
इक दिन श्री कलीधर पास।
इह ब्रितंत बहु करहि प्रकाश ॥५॥
सुनि करि श्री मुख ते बिकसाए।
सरब सरीर बीर रस छाए।
बिकसति बोले बचन क्रिपालू।
दुह आणखन३ त्रिं परो बिसालू ॥६॥
परो सु परो न निकसन होवै।
रैन दिना जोण जल तजि रोवैण४।
फूट जाइगी दुशटनि आणख।
१कबराण, समाधां।
२खिझदे हन। (अ) शरमिंदे हुंदे हन।
३दुहां दीआण अज़खां विज़च।
४रात दिने (नेत्राण तोण) जल गेर गेर रोंगे।