Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २७६

३९. ।धीर मज़ल कठोरता॥
३८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>४०
दोहरा: कीरत पुरि की नारि सभि, मिली आनि समुदाइ।
मिलि मिलि रोदति शबद को, अूचे रौर अुठाइ ॥१॥
चौपई: पुरि जन सगरे गुर ढिग आए।
बैठे सभा बिलद लगाए।
अचरज भयो अचानक एह।
नहि जानी इम तन तजि देहि ॥२॥
तरुन बैस बहु म्रिदुल सुभाअु।
सुखद सभिनि दुखदाय न काअु।
सादर पुरि महि लोक बसाए।
बूझति कुशल सदा अपनाए ॥३॥
अुर अुदार जाचहि जिम कोई।
हटि करि छूछ न गमनो सोई।
नहिबिकार मन, शांति सरूप।
महां सुशील प्रसंन अनूप ॥४॥
श्री करतारपुरे रण ठानति।
अज़ग्र सभिनि ते हुइ रिपु हानति।
जोधा अधिक बान बड मारे।
अरे अगारी सो नर हारे ॥५॥
इज़तादिक गुन भनहि सुनावहि।
श्री सतिगुर दे धीर बतावहि।
हुकम सज़ति परमेशर केरा।
कौन समज़्रथ देइ तिस फेरा१ ॥६॥
सभिहिनि के सिर भावी बली।
सिर धारति नित बुरी कि भली।
भांा मानहि हरखति रहैण।
नहीण तरक प्रभु की दिशि कहैण ॥७॥
इहु संतन को मति बीचार।
ग्रहण करो नीके निरधार।
इज़तादिक कहि बाक गुसाईण।


१मोड़।

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