Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८८
हाथ जोरि हुइ समुख बखानि।
सभि घटि अंतरजामी हे प्रभु!
वहिर खरी संगत हितवान।
दरशन को अभिलाखति अुर महिण
जे सिज़खी महिण रहिण सावधान।
तर शुशकति जल को जिमु काणखति१
पित देखन सुत चाहि महांन+ ॥१९॥
बिनै सुनी लखि सिज़खन मन की
बोले श्री सतिगुर सुख खान।
तनहु चंदोवा सुंदर अूपर
फरश करहु बैठनि इसथानि।
बज़लू ने सभि कीनसि तारी
जोण जोण श्री गुर कीनि बखानि।
आइ सिंघासन पर तबि बैठे
भगत वछल निज बिरद पछान ॥२०॥
चक्रवरति न्रिप पोशिश पहिरहि
तथा त्रिज़तीओ रूप सुहाइ।
जिमि इक नट हुइ सांग करै बहु,
बदलहि बेख जगत दिखराइ।
देख निहार भिंन पहिचानहिण
सभि की मति कौ दे बिरमाइ२।
ढिग वरती३ जोदास तांहि को
लखहि सु -इक बहु बेख बनाइ४- ॥२१॥
तिमि सतिगुर के सिज़ख समीपी
सो जानहिण -इक जोति जगंति।
अपर सरीर धरन समु बेख५- सु,
द्रिड़्ह मति राखहिण, नहीण भुलति।
१सुकदा ब्रिज़छ जिवेण जल ळ लोचदा है।
+पा:-तिम देखनि की चाहि महान।
२भरमा देवे।
३नेड़े रहिं वाले।
४लखदे हन कि इह इको ही बहुत वेस बणा रिहा है।
५होर सरीर दा धारना वेस (बदलं) वाणू है।