Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८९
श्री नानक अंगद अबि सो इह,
बैठे तखत सुहाइण महंत१।
आइसु पाइ निकट सभि आए
बंदन करि अकोर अरपंति ॥२२॥
दरशन करि करि आनणद धरि धरि
मिलि मिलि गुन कहि कहि सहि प्रेम।
अुदो गान रवि, हरि अज़गान तम२,
पुरहिण कामना प्रापति छेम३।
बुज़ढे आदिक सिज़ख सकल जे
रिदे सुज़ध तपतो जिमि हेम४।
नम्रि होइ करि बैठि गए ढिग
जिन के मन सिज़खी कहु नेम ॥२३॥
शबद कीरतन होनि लगो तबिकरहिण रबाबी राग अलाप।
श्री गुर को दरबार लगो पिखि
सिज़खन कै मन आनणद थाप।
सुने शबद निज भाग बडे लखि
बिदतो जहिण जहिण गुरू प्रताप।
थाप अुथापन सभि के संम्रथ,
पाप कलाप खापि५, हरिजाप ॥२४॥
दोहरा: गुरता गादी पर थिरे, त्रितीओ रूप* नवीन।
बुज़ढे आदिक सिज़ख सभि, अुसतति करति प्रबीन ॥२५॥
त्रिभंगी छंद: कलिजुग नर तारन, लखि इह कारन,
तन को धारन कीन प्रभो!
सिज़खन हितकारी जम भै हारी
भगति बिथारी आप बिभो६।
१प्रधान, पूजनीक।
२गान रूपी सूरज चड़्हिआ ते नाश होइआ अगान रूपी अंधेरा।
३कुशल, मुकती।
४तपाए सोने वाणू सुध रिदे वाले।
५नाश करता।
*पा:-गुरू।
६विआपक ने ।संस: विभु॥।