Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २)२८६
३८. ।मेले विचोण ठग फड़के दंड दिज़ता॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>३९
दोहरा: जनमो नद अनद भयो, मंगल ब्रिंद बनाइ।
बजी वधाई दार पर, नौबत नाद अुठाइ ॥१॥
सैया छंद: श्री अनदपुरि भयो कुलाहल
जाचक लोक मिले समुदाइ।
पौत्र जनम ते गुजरी हरखति
देति दरब कौ जो दर आइ।
अुतसव करति मिली पिक बैनी
मधुर मधुर सुर गीतनि गाइ।
करि करि आदर सदन बिठावति
जथा जोग तिन गिरा सुनाइ ॥२॥
कमल पुज़त्र सम बिसत्रित लोचन
बरन बरन के अंबर पाइ।
देति बधाई मेदति गुजरी
कहति असीसन सीस चढाइ।
देति दूब को देखि हूब को१,
दर पर फूलन माल बंधाइ।
नाच हीज फिर लेति भवालीटलका ताली मेल बजाइ२ ॥४॥
श्री सतिगुर समीप जो मंगत
मन भावति को पाइ सिधाइ।
दरब पटंबर लेति बिभूखन
मिले नारि नर गन चित चाइ।
सिंघ पौर पर ठौर न प्रापति,
भीर अधिक हुइ रौर अुपाइ।
जहि कहि ते सुनि सुनि बहु आए,
देनि बिसाल३ सुजसु बिरधाइ ॥४॥
करहि मंगलाचार घनेरे
१प्रेम ळ वेखके खज़बल घाह देणदीआण हन। ।घाह मंगल समेण ते देणा असीस देणी है कि इस वाणग
तुसीण वधो ते हरे भरे रहो॥।
२ताड़ी नाल टलीआण मेल के वजाअुणदे हन।
३बहुत दान देण करके।