Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९९
करहिण सदन निज बसन को, पुन लहिण सुखरासे१ ॥६॥
सावं मल बोलो सुनति, जोरे जुग हाथा।
दरब बिना किम आइ है, नहिण नर गन साथा२।
एकाकी हौ जाइ कै, का करवि अुपाए।
परबत बासी लोक जे, किम कहो कमाए३ ॥७॥
गुर महिमा जानहिण नहीण, जे परबत बासी।
लावन काठ समूह को, किम करवि प्रयासी४।
जो बिधि आप बखानहौ, तैसे मैण लावौण।
कै अग़मत मुझ निकट हुइ, न्रिप को दरसावौण ॥८॥
करोण सिज़ख तिस देश को, आगा पुन मानै।
आवहिदीरघ दार तब, हम जितिक बखानै।
तबि सुनि कै स्री अमर जी, लखि कै तिस आशै।
कहो कि जैसे चित चहहु, तस हुइ तुव पासै ॥९॥
सावं मल की मात ने, सुनि श्रोन मझारा।
करो पुज़त्र को मोहु बहु, अुर महिण डर धारा।
कंपति हाथनि पगनि ते, धरकति बहु हीआ।
चलि आई सतिगुर निकट, अस बोलन कीआ ॥१०॥
हाथ जोरि कंपति खरी, इक सुत है मेरे।
डाकनि५ परबत महिण रहति, मैण सुनी घनेरे।
काढि करे जा खाइणगी, परदेशी जानैण।
नहिण कुछ चलहि सहाइता, जबि प्रानन हानैण ॥११॥
इक पुज़त्रा६ मुझ जानि कै, कीजहि निज दाया।
जिस ते इह जीवति रहै, सुख हुइ अधिकाया।
इस को नहीण पछान कुछ, बिरमाइण कुचाली७।
किमि आवहि हटि सदन को, जहिण बिघन बिसाली८ ॥१२॥
१सारे सुख।
२बहुते मनुख नाल नहीण।
३मेरा किहा किवेण मंनंगे।
४किवेण यतन कराणगा।
५डैंां।
६इक पुज़त्र वाली।
७खोटी चाल वालीआण (डैंां) भरमा लैंगीआण।
८बहुते विघन हन जिथे।