Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २९८

३९. ।श्री अंम्रितसर जी आअुणा॥
३८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>४०
दोहरा: गमन करन को सुधासर, सिमरति अुर महि नीत।
-चहति देखिबे हमहि को, सभि सिज़खनि को प्रीत१- ॥१॥
चौपई: इक दिन मात गंग के पास।
चलिबे नगर प्रसंग प्रकाश।
बहु दिन बीते तजो सथाना।
करहि प्रतीखन सिज़ख महाना ॥२॥
सुनि जननी आनद करि कहो।
सुनहु पुज़त्र! मम चित अति चहो।अधिक बास निज पुरि बनि आवै।
अबि चलिबो सभि के मन भावै ॥३॥
करि मसलत माता के साथ।
निकसे वहिर बैठि करि नाथ।
बिधीए अरु जेठे संग भाखा।
पिखनि सुधासर की अभिलाखा ॥४॥
सुनि दोनहु हरखे कहि बानी।
हमरे मन की ही तुम जानी।
पठहि तहां ते सिज़ख संदेसा।
-सतिगुर बिरम रहे परदेशा ॥५॥
करि करि बिनती जोण कोण आनहु।
इह अुपकार सु हम पर ठानहु-।
करीयहि तारी बिलम बिसारे।
निज सिज़खनि की करहु संभारे ॥६॥
गुरु अुचरो सभि को कहि दीजै।
प्राति कूच है तारी कीजै।
सुनि जेठे ने सभि सोण कहो।
चलनि प्रात सोण सतिगुरु चहो ॥७॥
सुनि प्रसथान सकल हरखाए।
सभि वाहिन को तारि कराए।
चलहु सुधासर, हमहि निहारैण।


१प्रीत है साडे नाल।

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