Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३०३
आपस महिण को धीर देइ, इक सम दुख पावैण।
अवनी तल महिण लिटति को, सिमरहिण गुन२ केते।
सूरत सुंदर राजसुत, सभि को सुख देते ॥३०॥
राजा रानी प्रजा को, सचिवन३ समुदाया।
सभिहिनि को इक आसरा, सो प्रभु नहिण भाया।
अति कलेश जुत हेर करि, अुर दया अुपाई।
अर सारथ४ हित आपने, सावं मनि आई ॥३१॥
न्रिप ढिग ते इक सचिव को, निज निकटि हकारा।
हुइ इकंततिस को कहो, बड कहिर गुग़ारा५।
तअू गुरनि की क्रिपा ते, मैण इसे जिवावोण।
सिज़ख होइण मेरे सकल, सिज़खी बिदतावोण ॥३२॥
प्रथमे राजा सिख बनहि, पुन सचिव रु सैना।
बहुर प्रजा पाहुल पिवै, कहु न्रिप सणो बैना।
सुनति सचिव हरखति अधिक, ढिग गा महिपाला।
कही बात समझाइ सभि, इक संत बिसाला ॥३३॥
श्री नानक के पंथ को, बोलति इमि बानी।
-मति मेरे महिण न्रिपत हुइ, जे लेवहि मानी।
तौ मैण न्रिप सुत प्राण जुति, ततकाल जिवावौण।
पीछे मम सिज़ख होहिण सभि, सिज़खी प्रगटावौण- ॥३४॥
सुनि महिपालक कान महिण, जनु अंम्रित डारा।
कहो सरब ही सिज़ख हैण, गुरदेव हमारा।
कुवर६ जिवावहु आनि करि, आइसु जिम भाखे।
हम तिस के अनुसार निति, सेवा अभिलाखे ॥३५॥
आनहु बिलम बिहीन तिह, प्राननि को दाता।
नांहि त सभि ही हम मरहिण, संगि अपने ताता।
दौरि सचिव संग ले गयो, न्रिप साथ मिलायो।
करी चरन पर बंदना, सनमान बिठायो ॥३६॥१विरलाप कर रिहा है।
२(मरे होए दे) गुण याद करदे हन।
३वग़ीराण ळ।
४आपणे कंम ळ (सोच करके)।
५कहिर होया है।
६कंवर।