Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ३१३

४२. ।माता जी ळ समझाअुणा॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>४३
दोहरा: इति कलीधर तरुन बय, सुंदर रूप सुहाइ।
जबि ते पंमां केसरी, मारि दिये निकसाइ ॥१॥
निशानी छंद: तबि ते जंगसमाज को, अधिकाइ वधावहि।
तारी शसत्र तुरंग की, नीके करिवावहि।
बखशति हैण गन सुभट को, बहु दे अुतसाहा।
छुटहि तुफंगन की शलख, बड नाद अुठाहा ॥२॥
करहि प्रतीखन शज़त्र की, जिम पाहुन आवैण१।
हित ग़ाफत२ तारी करति, जो चहै मंगावैण३।
ते घेवर, सिपर को, बनवाइ रकेबी४।
गुलकाण शज़करपारीआण, गन करिहैण दैबी५ ॥३॥
करछी ब्रिंद बंदूक धरि, परुसहि६ ततकाला।
चतुर रसोईए सूरमे, धरि शीघ्र बिशाला७।
बनहि जलेब शिताब गन, खर खपरे भाले८।
त्रिपति करहि बहु रिपुन को, हुइ रहे अुताले ॥४॥
पंच दिवस बीते जबहि, अरि आइ न कोई।
सतिगुर चढे अखेर को, संग सैना होई।
चले अनदपुरि ते बजो, रणजीत नगारा।
जहां गिरनि की कंदरा, सम दून अुदारा ॥५॥
तित को गमने पंथ महि, रज गगन चढाई९।
अुठे नाद गन तुपक के, जनु मची लराई।
चीते, कूकर, बाज ले, बहिरी, सीचाने।
कानन महि बिचरति प्रभू, म्रिग केतिक हाने ॥६॥
गज बाजी जोधे चढे, पिखि करहि अखेरे।१जिवेण प्राहुणिआण ने आअुणा हुंदा है।
२प्राहुनचारी।
३जो लोड़ीदा है मंगाअुणदे हन।
४ढालां रूपी रकेबीआण बणवाअुणदे हन।
५देणा करनगे।
६परोसंगे।
७बड़ी छेती धारके (प्रोसंगे)।
८तिखे बान ते नेग़े।
९धूड़ आकाश चड़्ह गई।

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