Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३१५
४१. ।पंजाब ळ तिआरी। जगते सेठ ळ वर॥
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दोहरा: पित की माता के बचन सुनि, श्री गुरू गोबिंद सिंघ।
तुरकनि म्रिग समुदाइ को, चहति हनोण जिम सिंघ ॥१॥
चौपई: सिज़ख मसंदनि की बडिआई।
जबि माता ने इस बिधि गाई।
लखि कै सभि शरधालू विशेश।
चहति रहो पूरब ही देश ॥२॥
इस निशचै के टारन कारन।
मज़द्र देश हित करनि पधारनि।
लीला रची तबहि गुर सामी।
सभि घट घट के अंतर जामी ॥३॥
वहिर मुहाफा१ सो निकसायो।
संगति निकटि हुकम फुरमायहु।
ईणधन भारसकेलनि करो।
आनि आनि करि इस थल धरो ॥४॥
समधा२ जबि देखी समुदाया।
बीच मुहाफा तबहि टिकाया।
दियो हुकम पावक मंगवाए।
ततछिन दई तांहि लगवाए ॥५॥
जरनि लगो सभि नर बिसमाए।
-लाइ दरब बहु इहु बनवाए।
मातनि कहि मंगवावनि ठाना।
कबहु अरूढि न कीनि पयाना ॥६॥
नहि को दिन इस को सुख लयो।
आवति ही जराइ करि दयो-।
जाइ नानकी निकटि बतावा।
सो३ पावक के बीच जरावा ॥७॥
सुनि करि दासनि साथ बखाना।
१खासा।
२बालन।
३अुह (खासा)।