Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३२४
४७. ।राजा सिज़ख होइआ॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४८
दोहरा: सभि अबला के सहित न्रिप, डरो बाक सुनि स्राप*।
चहति पुनहि करि अनद को, भयो बुरो फल पाप१ ॥१॥
चौपई: त्रसति भूप ने पाग अुतारी।
पद पंकज पर धरी अगारी।
हाथ जोरि हुइ दीन महाना।
गुर प्रसंन हित बाक बखाना ॥२॥
बडिअनि की इह बड बडिआई।
बखशहि दास भूल जे जाई।
एक बार जे अपनो करिहीण।
नहि अवगुन तिन केर निहरिहीण ॥३॥
सागर ने बड़वानल धारी।
जल नासहि तजि नहीण निकारी२।
चंद्र मौल ने३ चंद्र धरो सिर।
सहित कलक, न कीनसि परहरि४ ॥४॥
तैसे क्रिपा द्रिशटि अविलोकहु।अवगुन देखि कोप कहु रोकहु।
हित की सिज़खा देहु अगारी।
चरणांम्रित लैबे इछ धारी ॥५॥
सिज़ख आपनो करहु गुसाईण।
सफल होइ कायां नर पाई५।
सुनि सतिगुर बोले मति धीर।
भो जै सिंघ सवाई बीर! ॥६॥
निशचल निशचै नित चित जिन के।
श्री नानक सुखदाइक तिन के।
अंग संग रहि सदा सहाई।
हलत पलत महि प्रभु हित दाई ॥७॥
१(पतीआण लैं रूपी) पाप दा फल बुरा होइआ है।
२(जल दा) जलंा सहारदा है (पर आपणे विचोण) निकाल नहीण छज़डदा।
३मज़थे ते चंद धरन वाले भाव शिवजी ने।
४(चंद) कलक वाला है पर अुस ळ दूर नहीण कीता।
५मानुख सरीर पाइआ है इह सफल होवे।