Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३२५
४२. ।राजिआण ने वग़ीर खां ळ भड़काअुणा। राइ बिसाली मेल॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>४३दोहरा: भयो खेत दारुन महां, लोथ संकीरण जाल१।
कूकैण जंबुक आनि कै, कूकर कूकि बिसाल ॥१॥
चौपई: निजगण के गण२ लै करि संग।
बिचरे रुज़द्र रुज़द्र करि अंग३।
ब्रिंद जोगनी पीवति श्रों।
बोल भयंकर सुनियति श्रों ॥२॥
परे हग़ारहु हय हथार।
नहि घायल की करी संभार।
तिस छिन जीवति भी मरि गए।
बन के जीव मास भखि लए ॥३॥
परी मार तुरकनि पर गाढी।
महां सोग जुति पीरा बाढी।
रहो वजीदखान चित चितवति।
-इह मम लशकर पर का बितवति४ ॥४॥
जानी गई न कुछ बुधि मन ते-।
झूरो पाइ पराजै रन ते।
-सिंघ अलप ही हते न गए।
रहे मवासी बड बल किये ॥५॥
कोट दुरग की ओट न कोई।
बीच मदान मोरचे होई।
मरे हग़ारहु बीर तुरंग।
नहीण संभारहि घाइल जंग५- ॥६॥
इज़तादिक पछुतावति रहो।
गुर प्रताप नहि मूरख लहो।
भीमचंद कहिलूरी गयो।
भूपचंद हंडूरी लहो ॥७॥
१सारीआण (दोहां धिराण दीआण)लोथां रलीआण मिलीआण पईआण हन।
२सारे आपणे गुणां ळ।
३रुज़द्र सरीराण ळ भानक बनाके विचर रहे हन।
४की बीतदी है?
५जंग विच ग़खमी होइआण दी संभाल वी नहीण कीती जा सकी।