Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३३०

४८. ।श्री गुरू जी दे शरीर ळ खेचल। शहिरोण बाहर डेरा॥४७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४९
दोहरा: रिदे बिचारो सतिगुरू, -न्रिप अग़मत लखि लीनि।
करहि बिदति सभिहिनि बिखै, शाहु आदि लेण चीन ॥१॥
चौपई: तुरकेशुर संग मिलहि न कैसे।
नेम निबाहनि करि हैण ऐसे।
सुनहि भूप ते गहु१ बहु करै।
मिलिबे हेतु जतन को धरै ॥२॥
दुतीए भ्राता स्राप प्रकाशा।
जिस के मुख महि गुर को बासा।
कहिबो साच बनहि तिस केरा।
रिदै नहीण सतिगुर को डेरा ॥३॥
जिस ते मतसर रिस ते आदि।
अुपजहि अुर महि ठानहि बाद।
पुन स्री तेग बहादर भारे।
गुरिआई सो पाइ अुदारे ॥४॥
स्री हरिगोविंद बडे हमारे।
होहि गुरू२ इह बाक अुचारे-।
इज़तादिक कारन बहु जानि।
चाहति चित प्रलोक को जानि ॥५॥
सो रजनी करि बास बिताई।
जाम रही तो अुठे गुसाईण।
सौच शनाने भई प्रभाती।
कीरतन सुनति दास ढिग पांती ॥६॥
तन महि तप३ तबि ही हुइ आवा।
परे प्रयंक बदन अलसावा।
मातहि जाइ बिलकोनि कीने।अतिशै चित चिंता महि भीने ॥७॥
कहति भई तुम दरशन करे।


१खिआल। (अ) हठ।
२भाव श्री गुरू तेग बहादर जी गुरू होणगे।
३ताप।

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