Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३३२

४१. ।ललाबेग दी चड़्हाई॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>४२
दोहरा: तबि वग़ीर खां देखि करि,
तारी हग़रत कीनि।
किंचबेग* कहि आदि कुछ,
निज मसलत महि लीनि१ ॥१॥
चौपई: कोण न बिचारहु जितिक नजीकी?
तारी नहीण शाहु की नीकी।
हम इस के हैण सभि सुखदाई।
कोण नकहहु इस रखहु हटाई ॥२॥
श्री नानक घर अग़मत भारी।
तिन सोण करे जंग, हुइ हारी।
करि संगी सभि शाहु सलाही२।
कही मिटहि जिस ते किम नांही३ ॥३॥
हाथनि जोरि गुग़ारति अरग़ी।
करी हग़ूर जानि की मरग़ी।
सो आछी नहि सभिनि बिचारी।
तुमरो चढनि अहै अति भारी ॥४॥
ब्रिंद बलाइत लिखो सिधारे।
सगरे तुमरे करम बिचारेण।
गुर ढिग अलप बाहनी रहै।
तुम को मालिक मुलखनि कहैण ॥५॥
होहि बरोबर तौ बनि आवै।
नांहि त लरिबो सैन पठावै।
जे अग़मत करि गुरू भजावै।
हजौ४ आप की जगत अलावै ॥६॥
दुरग समीप न गुर के कोई।


*पा:-किलचबेग।
१किंचबेग ळ पहिलोण कुझ कहिके आपणी सलाह विच लै लिआ।
२सारे शाह दे सलाहकार संगी कर लए।
३जिस तर्हां कि कही (गज़ल) किवेण बी ना मिटे। भाव ऐसे त्रीके नाल समझके बादशाह ळ कहिं कि
अुह मंन लवे।
४निदिआण ।फा: हजो॥

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