Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 32 of 372 from Volume 13

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ४५

४. ।जज़ग कीता॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगला अंसू>>५
दोहरा: सकल क्रिआ करि पिता की, ब्रिज़धनि१ जथा बताइ।
जहि कहि सुनि सुनि आइगे, सिख मसंद समुदाइ ॥१॥
बेदी कुल तेहण मिले, भज़ले सुनि सभि आए।
बैठि बैठि गुर के निकट, रहे सिवर निज पाइ ॥२॥
पाधड़ी छंद: श्री नानकी मात ब्रिलाप कीनि।
आणसूनि डारि चित होति खीनि२।
तिम गुजरी अति शोकहि अुपाइ।
नित बहो द्रिगनि ते नीर जाइ ॥३॥सतिगुर बिचारि भेजे मसंद।
देहु मात जाइ धीरज बिलद।
गुर सदन शोक होवंति नांहि।
इक रस अनद महि सथिति पाहि ॥४॥
सुनि गए महिल देखी सु जाइ।
करि नमसकार बैठे सु थाइ।
कर जोरि कहो माता! सुणेहु।
तुम अुचित नांहि एतिक सनेहु३ ॥५॥
गुर तजो देहि है कै सुछंद।
जग धरम रखो हिंदुनि बिलद।
तुरकेश सीस दोशहि चढाइ।
तन अंत समा पहुचो सु आइ ॥६॥
अबि तिन सथान सुत को बिलोक।
मन ब्रिती शोक ते राखि रोकि।
थित हुतो निकट भ्राता क्रिपाल।
सुनि इह प्रसंग कहि तातकाल ॥७॥
हे भगनि! लेहु चित महि बिचार।
नहि मिटहि कबहु जो होनहार।
सतिगुर शलोक लिखि कै पठाइ४।

१वडिआण ने।
२दुखी।
३भाव दिल तोड़वाण मोह।
४जो भेजे हन।

Displaying Page 32 of 372 from Volume 13