Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ४५
४. ।काणशी विच पंडतां नाल चरचा॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>५
दोहरा: मंत्रराज१ संछेप करि, कहो जथा मति सार।
जिह समुझे निज रूप लहि, होति सिंधु भव पार२ ॥१॥
चौपई:सुनहु दुतिय३, श्री ग्रिंथ जु बाणी।
रतनाकर४, अनगन गुन खांी।
श्री गुर इह नमित अवतारा।
श्री केशव५ निशचे वपु धारा ॥२॥
निरखो कलि जनु आयु सु थोरी६।
जोग, जज़ग, जप बनै न भोरी७।
पूरब८ धरम सथापन हेतू।
तन धारति प्रभु क्रिपा निकेतू ॥३॥
तां ते जिह बिधि जग कज़लाना।
होति, वही बिधि क्रित भगवाना।
अवर साधना बनै न कोई।
गिरीवान वाचा अति गोई९ ॥४॥
पढति पढति है आयु बितीता१०।
है कबि धान धेय बिपरीता११*।
परअुपकार हेतु गुर सामी।
१शिरोमणी मंतर (वाहिगुरू)।
२संसार सागर तोण पार।
३दूजे (प्रशन दा अुज़तर) सुणो।
४रतनां दी खां।
५परमेशुर ने।
६देखिआ कि कलजुग दे जीवाण दी अुमरा थोड़ी है।
७रंचक मात्र नहीण हो सकदे।
८पहिलां तोण ही।
९विदानां ने (संसक्रित) बोली बहुत लुका के (या गुहय करके) रज़खी है, भाव हर किसे ळ पड़्हाअुणदे
नहीण हन।
१०(जे किसे ळ पड़्हाअुण बी तां) पड़्हदिआण पड़्हदिआणअुमरा लघ जाणदी है।
११(फेर इह गज़ल) कदोण सिरे चड़्हे कि धिआन ते धेय अुलट जावे भाव जगत साडा धेय है ते
धान अुस वल है, हुण इह अुलटे तां धेय वाहिगुरू होवे ते धान अुस विच लीन होवे, भाव
पड़्हन तोण मगरोण अमल करके संसाराकार तोण ईशराकार होण दा समां कदोण आअू, अुमर तां लघ
गई पड़्हदिआण।
*पा:-ब्रितरीता = संसार दे पदारथां दे धिआन वलोण ब्रिती खाली नहीण हुंदी। (अ) संसार वलोण
खाली हो के कदे वी धेय (ब्रहम) वल ब्रिती नहीण लगदी।