Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३३४
३६. ।राजिआण नाल जंग। सिंघां दा मान हटाया॥
३५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>३७
दोहरा: अुमडे दल दिश दुहनि ते, करी तुफंगैण तार।
दसतरवाण कर तजि दई, होनि लगी तबि मार ॥१॥
चौपई: हित हेरनि के जंग तमाशा।
श्री कलीधर है इक पासा।
अूचे थल पर है थित रहे।
दोनहु दिश के दल को लहे१ ॥२॥
सिंघ आठ सै हुइ सवधाने।
दस हग़ार गिरपति भट आने।
जाला बमणी की थिर माला२।
छुटि इकबार प्रकाशी जाला ॥३॥
घटा चमूं महि तड़िता जागी।
करका बरखति गुलकाण लागी।
हय को फेरि तुफंग चलावैण।
वधे अज़ग्र को मार गिरावैण ॥४॥
देखि परसपर भनहि पहारी।
इह बिज़दा सिंघन महि भारी।
हय धवाइ पुन हतैण निशाने।
निज बचाइ करि बहुर पयाने ॥५॥
करि हंकार खालसारिदे।
ओरड़ परे३ अज़ग्र को तदे।
भीमचंद निज अंग बचाए।
रण के सनमुख सकै न आए ॥६॥
भूपचंद हंडूरी धायो।
देव शरण को संग मिलायो।
बहुर वग़ीर सिंघ रण घाला।
छूटति गुलकाण नाद कराला ॥७॥
सभि सिपाह को आगै धरिओ।
१देखदे हन।
२बज़धी होई कतार।
३टुज़टके पए।