Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३३६
४४. ।काणशी विज़च निवास॥
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दोहरा: मिले कीने सभि बंदना, सिख करि कै अुर भाअु।
गन मेवे अरपन करे, आनद रिद न समाअु ॥१॥
चौपई: सभिनि संग हुइ लावनि ठाने।डेरा करिवायहु शुभ थाने।
सुंदर इक प्रयंक ले आए।
अुज़जल आसतरन को छाए ॥२॥
श्री गुर तेग बहादर नदन।
बैठारे करि सिज़खनि बंदन।
सकल पुरी महि सुधि हुइ आई।
दरशन हित संगति अुमडाई ॥३॥
आपस बिखै भनैण नर नारी।
आयो प्रथम गुरू इक बारी।
जिह श्री तेग बहादर नामू।
तिन के इह नदन अभिरामू ॥४॥
जिन को दरसन पुरवहि सारथ।
ले शरधालू कार पदारथ।
घर महि चलि करि नवनिधि आई।
होहि कुभागी लेनि न जाई ॥५॥
इम कहि ले ले करि अुपहार।
मिलि करि चले ब्रिंद नर नारि।
आनि हग़ारहु दरशन करैण।
भांति भांति की भेटनि धरैण ॥६॥
मूरति अलप सलोनी१ देखि।
शुभ गुन महि सभिहूंनि विशेश२।
करहि सराहनि आपस मांही।
इह गुर जोधा बनहि महां ही ॥७॥
महां प्रतापवंत मुख दिपै।
कोण न श्रेय हुइ जो इन जपै।
१छोटी ते सुंदर।
२सारिआण तोण वज़डे।