Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३५३
पारो किरपा द्रिशटि निहरो ॥१४॥
अधिक रिदै तिह प्रेम प्रकाशा।
मन ते भयो बिकार बिनाशा।
हाथ जोड़ि कै तांहि अुचारा।
अहो वली! का नाम तुमारा? ॥१५॥
किति को जाति कहां ते आए?
खादम कीजहि बरा खुदाए१।
पारो नाम हमारो अहै।
गुर दरशन जावति चित चहै ॥१६॥
सुनि नवाब मन सिदक अुदारा२।
बूझो३ किह ठां पीर तुमारा?
हम को संग लेहु दरसावहु।
धंन गुरू जिसपहि तुम जावहु ॥१७॥
पारो कहो संग जो लशकर।
अपर बिभूति सरब को परहरि।
तबि तुम गमनहु दरशन करीअहि।
सतिगुर परसन को फल धरीअहि ॥१८॥
प्रेम नबाबकीनि तिस काला।
सुत को सौणपि समाज बिसाला।
खिजमत पातिशाह की करो।
हमरो खाल नहीण अुर धरो ॥१९॥
सुत को सभि बिधि तिन समझायो।
पारो संग आप चलि आयो।
सतिगुर को बंदन करि बैसे।
भए प्रसंन देखि करि तैसे ॥२०॥
पारो! धंन धंन* अुपकारी।
तरहु आप अपरन दे तारी४।
बोलन मिलन संत सोण नीका।
१खुदाइ दे वासते (मैळ) दास बणा लओ, ।फा: बराए ुदा॥।
२बहुत होया।
३पुछिआ।
*पा:-जीअन।
४होरनां ळ तार देणदा हैण।