Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३५१५१. ।संगतां ळ अुपदेश॥
५०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>५२
दोहरा: चेत चतर दसमी१ भई, चाहति भे परलोक।
बाकुल तन की दशा बहु, देखति दास स शोक ॥१॥
चौपई: सेवा हेतु दास जो नेरे।
नेत्र अुघारि तिनहु दिशि हेरे।
करो हुकम हम चलहि प्रलोक।
जे दरशन काणखी सभि लोक ॥२॥
है मसंद गुरबखश सि माला२।
दिज़ली नगर बिखै सभि काला।
तिस ते आदिक अपर जि अहैण।
अरु सिज़ख संगति दरस जि चहैण ॥३॥
तिन सभिहिनि को आनि हकारि।
पावहि दरस आनि दरबार।
सुनति बिलोचन दासनि भरे।
ततछिन अज़श्र बूंद गिर परे ॥४॥
माता आदिक सभिनि सुनाइ।
समदाइनि को शोक अुपाइ।
पुन गुरबखश हकारनि करो।
सुनि करि नेत्रनि महि जल भरो ॥५॥
अपर सिज़ख संगति बुलिवाए।
दरशन के कारन चलि आए।
रिदे बिसूरति मुख मुरझाए।
तूशनि ठानि पहुचि तिस थाएण ॥६॥
जै सिंघ आदि अपर नर घने।अुतलावति चित चिंता सने।
सकल आनि पहुचे जबि पौर।
भई भीर थिर भे तिस ठौर ॥७॥
अंतर सतिगुर निकटि जनायहु।
सुनि सुधि जै पुरि को पति आयहु।


१चेत दी चौदस।
२गुरबश मज़ल।

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