Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३५१
४६. ।दिज़ली विखे हवेली विज़च डेरा॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>४७
दोहरा: दिज़ली महि तिसघर बिखे, रहै देव जिस मांहि।
जो हठ करि नर तहि बसहि, मारति है तरसाहि१ ॥१॥
चौपई: सगरे नगर बिखै इह रौरा।
नहि प्रवेश हुइ को नर पौरा२।
त्रासति सकल रहैण नर बाहर।
दिन महि भी न निकटि हुइ ग़ाहर ॥२॥
बीच जामनी बसि है कौन।
ऐसो हुतो भयानक भौन।
तुरकेशुर की आइसु करे।
तिस सथान श्री गुरू अुतरे ॥३॥
चहुं दिशि चौकीदार बिठाए।
संग जि दास वहिर अुतराए।
सभि हिंदुनि को पीर कहावै।
अबि मारसि३ इस छुट नहि जावै ॥४॥
कै धरि त्रास दीन महि आवै।
तुरक सकल मानुख हुइ जावैण।
बिना जतन ते इह बिधि होई।
कै मरि जाहि डरहि सभि कोई ॥५॥
नौरंग साथ कहै अुमराव।
रावर ने किय भलो अुपाव।
बिन मारे हिंदू मरि जै है।
नांहि त डर करि तुरक बने है ॥६॥
जबि इह दीन बिखै हुइ जाइ।
सभि की अटक चुकहि इक भाइ४।
इह हिंदुनि को गुरू कहावै।
इम पीछै सभि के मन भावै५ ॥७॥१डरा के मारदा सी। (अ) मारदा सी या डराअुणदा सी।
२(अुस हवेली दे) दरवाग़े विच।
३(देव) मार देवेगा।
४इक तर्हां। इको वेर।
५भाव, चाहके तुरक बण जाणगे।