Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३५२
४६. ।सिज़खां दे प्रसंग॥
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दोहरा: राजि महल पुरि के बिखै, भानू बहल बसंति।
भाअु भगतिसिज़खी धरी, बरतहि गुरू मतंत१ ॥१॥
चौपई: सिमरहि वाहिगुरू सतिनामु।
वंडि खाइ जो होवहि धाम।
श्री हरिगोविंद के ढिग आयो।
धरि अकोर को सीस निवायो ॥२॥
बूझनि कीने जलधि बिबेक२।
शासत्रानि मत३ अहैण अनेक।
को तप तीरथ महिमा गावै।
को -ब्रत नेमनि करहु- बतावै ॥३॥
-जज़ग होम- को करै बिसाल।
को कहि -दान करहु बिधि नाल-।
बडिआई सतिगुर के धाम।
केवल सिमरनि को सतिनाम ॥४॥
अंतर इन महि कितिक बतावहु।
किम महिमा सतिनाम बधावहु?
श्री मुख ते सुनि बाक बखाना।
जुगति बतावनि कीनि महाना ॥५॥
सज़तिनाम एकाणग४ पछान।
अपर करम सभि शूंन५ समान।
जे इकाणग६ पूरब लिखदेय।
शून लगे दस गुनो बधेय ॥६॥
जे इकाणग पूरब लिखि नांही।
केवल शूंन लिखति ही जाहीण।
सो सभि खाली कुछ नहि सरै।
१गुरू मत अनुसार।
२भाव गुरू जी तोण पुज़छिआ।
३शासत्राण ते मत।
४एका।
५बिंदी।
६एका।