Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ३५५
४१. ।श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी दी बीड़ दी लिखाई॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>४२
दोहरा: निकट रहो गुरदास इक,
लिखनि सुननि के हेतु।
केतिक सेवक अपर जे,
बैठहि होहि सुचेत ॥१॥
चौपई: निकट न पहुचहि बिना बुलाए।
चहुदिशिबैठे करि चुकसाए।
जो मानव आवहि अनजाने।
बरजहि तिनहि न ढिग देण जाने ॥२॥
इम एकाकी है गुर पूरे।
तबि गुरदास हकारि हदूरे।
निकट बिठाइ मनोरथ भाखा।
सुनि भाई हमरी अभिलाखा ॥३॥
रचहु ग्रिंथ की बीड़ अुदारी।
लिखि अज़खर गुरमुखी मझारी।
श्री नानक पज़टी जु बनाई।
पैणती अज़खर करे सुहाई ॥४॥
तिन महि लिखहु सरब गुरबानी।
पठिबे बिखै सुखैन महानी।
जिन की बुज़धि महिद अधिकाई।
बहु अज़भासहि बिज़दा पाई ॥५॥
बहुर बरख लगि पठहि बिचारहि।
सो तब जानहि सार असारहि।
तिस तत को गुरमुखी मझारी।
लिखहि सुगम शरधा१ अुरधारी ॥६॥
सहसक्रित अर तुरकनि भाशा।
इस महि लिखि लै हैण बुधिरासा।
सभि अूपर पसरहि इह धाई२।
जिम जल पर सु चिकनता पाई१ ॥७॥
१इज़छा। ।संस: श्रज़द ा = इज़छा, भावना, भरोसा॥
ध
२दौड़ के फैलेगी।