Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३५५
४६. ।चंदू ने डर के फेर सगाई हित दूत भेजे॥
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दोहरा: श्री गुर हरिगोविंद जी,
इस बिधि समो बिताइ।
भरो महां बल देहि महि,
दीरघ डील सुहाइ ॥१॥
चौपई: अुत चंदूकी सुनो कहानी।
महां पातकी मति अुरि हानी।
श्री अरजन घर तजो सरीर।
दे करि दोश मूढ सिर, धीर१ ॥२॥
अुर महि डरपति दुशट महांन।
-इम नहि बिदतहि बीच जहान।
श्री सतिगुरु चंदू नै मारे।
छपी रहै, नहि होइ अुघारे- ॥३॥
नुखा जारि२ ततछिन मग परो।
दिली शाहु निकट चित धरो।
-को नहि कहहि हटक सबि राखौण।
किस धन दे किस बिनती भाखौण ॥४॥
चहति जु हतो३ बिदति नहि होइ।
भयो जतन के ततपर सोइ-।
अनिक भांति चितवति मग जाते।
-सुनति शाहु चित है न रिसाते४- ॥५॥
पहुचयो पुरी सदन तबि गयो।
कलहि सुता५ देखति दुख भयो।
जिस हित पाप कीनि बहुतेरा।
तअू न तिस को सुख किम हेरा ॥६॥
जहांगीर के तीरजि जाइ६।
१भाव गुरू जी ने।
२ळह दाह करके।
३मारना।
४क्रोधवान ना हो जावे।
५कलह रूप पुज़त्री।
६जो जाणदे सन।