Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३५५

४४. ।युज़ध फतह। लोथ दी संभाल॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>४५
दोहरा: बिधीचंद ते परे सिख, फते गुरू की जानि१।
तिमर बिखै करि हेल को, मेलि दियो घमसान ॥१॥
चौपई: इकदिशि ते जोण बाढनि लागे।
तम महि तुरक त्रास करि भागे।
जिन के रण महि तुरग मरे हैण।
इत अुत बिथरे जाइ दुरे हैण ॥२॥
अरति जाति को* भागति जाति।
पीछे सिज़ख खड़ग करि घाति।
जाति पिछारी काटति जबै।
गुरू दुहाई बोले तबै ॥३॥सुनति सिज़ख पीछे हटि आए।
नहि मारनि हित हाथ अुठाए+।
जहि सतिगुरु डेरो निज डारा।
तजे दास तहि राखि सुधारा ॥४॥
तिनहु बिचार कीनि मन मांही।
-तिमर भयो गुरु आगम नांही-।
संधा परी जानि तिस काला।
दै मशालची जारि मसालां ॥५॥
तूरण ही रण की दिश आए।
खोजनि लगे नहीण गुरु पाए।
बिधीचंद जुग देखि मसाल।
हय धवाइ आयसि ततकाल ॥६॥
गुरु सुधि बूझति आपस मांही।
सकल कहति देखे हम नांही।
चिंता अधिक सभिनि के होई।
खोजन लगे खेत सभि कोई ॥७॥
इत अुत महि बिचरति असुवार।


१बिधीचंद तोण परे (खलोते) सिज़खां ने गुरू जी दी फते (होई) जाणके।
*पा:-आरति है करि।
+इह सूरमगती ते दइआ दी अवधी है कि भजदिआण ळ मारिआ नहीण।

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