Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति १) ३६४
४९. ।बुज़धू शाह। फतेशाह मिलिआ॥
४८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति १ अगलाअंसू>>५०
दोहरा: निकट पहुचि सतिगुरू के,
पद अरबिंद निहारि।
हाथ बंदि बंदन करी,
बैठे सभा मझार ॥१॥
चौपई: श्री कलगीधर को रु पायो।
जो प्रसंग भा सकल सुनायो।
प्रभू! आप तुम अंतरयामी।
सभि घट के मालिक जग सामी ॥२॥
करी क्रिपा तिन त्रास मिटायो।
सभि पुरि के धीरज अबि आयो।
कहो आप को जबहि सुनाइव।
बनो म्रिदुल अरु मिलनि अलाइव ॥३॥
हरखो अुर कहि हम अनसारे।
आशै लखे बिना भ्रम धारे-।
सुनो नरनि ते चलो पलाई।
कहि बहिलो के१ धीर अुपाई ॥४॥
तअू न ठहिरति जानो परै।
अनतै२ चलनि मनोरथ धरै।
आशै तिस को जानो जाई।
मिलहि कितिक बिन महि तुम ताईण ॥५॥
सतिगुर कहो त्रास कोण धारा।
कहां हमारो काज बिगारा।
बसहि निशंक दूं के मांही।
बिन कारन कुछ को कहि नांही ॥६॥
इम कहि अपर खाल बिरमाए।
नगर पांवटे नर समुदाए।
आइ हग़ारहु नित दरसै हैण।
कितिक जाइ अरु कितिक बसैहैण ॥७॥
१बहिलो के (गुरदास ने)।
२होरथे।