Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३७३

४६. ।जुज़ध जारी॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>४७
दोहरा: ललाबेग के सुत खरे, बोले कोप समेत।
टरहु न अबि आगे पठहु, दस सहज़स्र रण खेत ॥१॥
पाधड़ी छंद: तहि रहैण लरति आगा सु रोकि।नहि जंग खेत छूछा बिलोकि।
जबि लौ न प्राति होवै प्रकाश।
तहि करहि जुज़ध रिपु गन बिनाशि ॥२॥
दिन चरे बीर सगरे संभाल।
इक बार रिपुनि पर हेल घाल।
तबि लेहि पकरि कैण देण संघार।
हय लेनि शाहु के करहि कार१ ॥३॥
अबि जंग पाइ जे पठहु नांहि।
लशकर समूह निज रखहु पाहि।
सभि दल सकेलि सो परहि धाइ।
जिन बहुत बीर मारे रिसाइ ॥४॥
सुनि ललाबेग मसलत बिसाल।
तबि दस हग़ार सरदार नाल।
कहि तिनहु साथ आगै लरेहु।
नहि शज़त्र ब्रिंद बहु बधनि२ देहु ॥५॥
बड अंधकार फैलो कराल।
नहि कटहु आप महि, रखि संभाल।
सुनि कहैण बीर सीरी समीर३।
बहु परति सीत ठरि है सरीर ॥६॥
इह बुरी बात कीनी अजान।
इक थकति, छुधति, पारा महान।
अबिभटनि थान कहु लरहि कौन।
अुकसैण न हाथ तन सुंन जौन ॥७॥
दल मरो अरध रण कुछ न कीनि।


१शाह दे घोड़े लैं दी कार कराणगे।
२वधं।
३(बड़ी) ठढी हवा (वग रही) है।

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