Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ३७४

५३. ।भूम अुज़ची कीती। सुजनी हेठोण पज़तरे कज़ढे॥
५२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>५४
दोहरा: कीनि शरईअनि मंत्र मिलि इक हिंदू सभि मांहि।
अूचो बैठहि गरब करि, इह लाइक कछु नांहि ॥१॥
चौपई: गन अुलमाअु मुलाने काग़ी।
दुखहि देखि करि मूढ सदा जी।
होइ न आवति है किम समता।
तिस अग़मत को सभि जग नमता१ ॥२॥
तिस को लेश न मूढ मतन मैण२।
एक शर्हा गहि गाढे मन मैण।
कहैण परसपर शाहु सुनावहु।
तुम कोण शर्हा वहिर पग पावहु ॥३॥
सरब तुरक कर जोरहि खरे।
साथ अदाब सभा महि बरे।
को बैठति हुइ नीचे थान।
नांहि त खरे रहैण डर मांनि ॥४॥
इक हिंदू आवति हंकारति।
तिस को सभि ते अूच बिठारति।
कहै न कलमा दीन न मानहि।
अपने मत को महिद बखानहि॥५॥
यां ते तुमने सर्हा बिगारी।
इम चलि भाखहु शाहु अगारी।
करि मसलत नौरंग ढिग आए।
पूरब अपर प्रसंग चलाए ॥६॥
पुन निज मत को मता३ बखाना।
सुनहु शाहु जी! बड बुधिवाना।
शर्हा वहिर जे हिंदुनि मत है।
तिस कहु नित सनमानति अति है ॥७॥
जिन को बोलिनि मिलिनि स दोशा।


१निअुणदा है।
२मूरखां दी मत विच तिस करामात दा लेश भी (भरोसा) नहीण।
३मसला, सिज़धांत।

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