Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७८
अुपजैण तन इत ही१ बिनसंते।
आगे संग न किसे चलते ॥१२॥
सिमरो जिन सतिनाम सदीवा२।
सिज़खन सेव करी मन नीवा।
तिन की पति लेखे पर जाइ।
जाति कुजाति न परखहिण काइ ॥१३॥
मज़लं३ आनि परो गुर शरनी।
करि बंदन पद, बिनती बरनी।
मो कहु कुछ दीजहि अुपदेश।
जिस ते मिटैण कलेश अशेश ॥१४॥
सतिगुर कहौ ताग हंकारा।
संतन सेवो होहिण सुखारा।
शरधा धरि अहार करिवावहु।
चरन पखारहु रुचित्रिपतावहु४ ॥१५॥
बसत्र बनाइ गुरन हित देहो।
छुधति नगन ते आशिख लेहो५।
सज़तिनाम सिमरहु तजि कान६।
होहि अंत को तुव कज़लान ॥१६॥
सुनि गुर बच ते करन सु लागो।
संतन सेव बिखै अनुरागो।
अुज़ग्रसैन अरु रामू दीपा।
आइ नगौरी गुरू समीपा ॥१७॥
करि बंदन बूझो अुपदेश।
गुर बोले करि क्रिपा विशेश।
सिख जिस समेण आइ करि मिले।
देहु तार करि भोजन भले ॥१८॥
अंम्रित वेला करिहु शनान।
१इज़थे ही।
२लगातार।
३नाम है।
४प्रीत नाल (छका के भोजन) रजाओ।
५अशीरबाद लओ।
६कनौड।