Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३७६
५०. ।सिख दे घर प्रशाद पाइआ॥
४९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १२ अगला अंसू>>५१
दोहरा: सिख के घर भोजन अचो, निकसे जबि तिस दार।
पिखे मुलाने तबि तहां, जर बर हुइ गो छार ॥१॥
चौपई: नर संगी थे, तिन पुछवायो।
इन के घर कैसे करि आयो?
किन हूं तहां सु कीनि बतावनि।
इस के घर भोजन किय खावन ॥२॥
अपनो सिज़ख जान करि भाअू।
अचो अहार रिदे हरखाअू।
मतसर अगन मुलाने मन महि।
जर बर भयो भसमि तिस छिन महि ॥३॥
-जबि लगि तुरक बनहि इह नांही।
नहि मानहि हिंदू मन मांही।
हिंदुवान को मूल इही है।
अबि निशचै भी बात सही है- ॥४॥
दुशट गिनति इम रिदे मझार।
पहुचो नौरंग के दरबार।
जो श्री तेग बहादरगहो।
तुम जो करनि मनोरथ चहो ॥५॥
तिस को मूल जानीएण आछे।
बने तुरक इस, सभि हुइ पाछे।
लाखहु नर तिस के अनुसारि।
पूजहि आइसु मानि अुदार ॥६॥
अबि तिस की कीजहि तकराई।
वहिर कैद ते है न कदाई१।
अबि सिज़खनि के घर चलि जाइ।
करि आदर सो असन अचाइ ॥७॥
लोक वहिर के मिलति जि रहैण२।
कैद बिखै तौ किम दुख लहै।
१कदी वी।
२जे मिलदे रहे।