Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २)३८१
४७. ।भाई बहिलो-जारी॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ४८
दोहरा: तिस के पूरब जनम को,
पता लिखो गुर राइ।
कागद करि कै खाम को१,
दीनहु सिज़ख पठाइ ॥१॥
चौपई: बहिलो निकटि सिज़ख पुन आयो।
गुरू हुकमनामो दिखरायो।
ले करि सिख ते सिर पर रखो।
खोलो कागद पठि सभि लखो ॥२॥
प्रथम जनम के इक दुइ पते।
पठि करि अचरज चित महि अते।
करि बिचार अुर इम ठहिराई।
-जानौण बनहि२ गुरू शरणाई ॥३॥
जे अबि भाग जगे कुछ मोरे।
मिटहि जगत बंधन दुख घोरे।
जिस हित मुनि जन करहि अुपाइ।
राज बिभूति तजहि समुदाइ३ ॥४॥
अनिक भांति के तप कहु तापति।
करहि जोग जिस हित दुह प्रापति४*।
सुति बनिता को तागहि मोह।
बिचरहि सदा इकाकी होहि ॥५॥
निताप्रज़ति मैण पूजक सरवर५।
अनुसारी मेरे हैण बहु नर।
अबि मैण गमनौण सतिगुरु पासि।
परौण शरनि करि कै अरदास॥६॥
तहि गमने मम श्रेय जु अहै।
१बंद करके।
२जाणा बणदा है।
३कठनता नाल लभण वाला है।
४सखी सरवर दा।
*पा:-सुख प्रापति दुख प्रापति।
५गान दाता।